संजय मिश्रा और तिग्मांशु धूलिया की डार्क कॉमेडी ड्रामा Holy Cow इसी महीने 26 अगस्त को रिलीज होगी. बॉलीवुड के बड़े-बड़े सितारों के बीच यह कोई ऐसी फिल्म नहीं है जिसे लेकर बहुत सारा शोर शराबा मचे. मगर संजय मिश्रा जैसे उम्रदराज अभिनेता का मुख्य भूमिका में होना इस बात का सबूत मां लेना चाहिए कि फिल्म की कहनी बॉलीवुड की फ़ॉर्मूला फिल्मों से अलग ही होगी. यह भी कि यह भारतीय सिनेमा में उस परंपरा की फिल्म भी है जो महानायकों के उदय के साथ ही ख़त्म हो गई थी. महानायकों का जब उदय हुआ तो भारतीय सिनेमा खासकर बॉलीवुड में ‘हीरो’ की परिभाषाएं ही बदल गईं.
एक्टर को अभिनय आए या ना आए, मगर उसका ख़ूबसूरत, गोरा चिट्टा, लंबा चौड़ा और छरहरा होना हीरो बनने की सबसे अनिवार्य शर्त थी. वह कोई सुपर सितारा हो तो कॉमर्शियल सिनेमा के नाम पर हिंदी में कुछ भी बेंचे जाने की गारंटी दिखती थी. हालांकि पिछले सात आठ साल में स्टार सिस्टम लगभग ध्वस्त हो चुका है. हालांकि अभी भी स्टार सिस्टम के फ़ॉर्मूले में जबरदस्ती जारी है और टिकट खिड़की पर बॉलीवुड फिल्मों का हश्र असल में उसी का नतीजा भी है.
संजय मिश्रा के बहाने बॉलीवुड की बर्बादी की सबसे बड़ी वजह भी जानते चलिए!
खैर, हिंदी सिनेमा में स्टारडम का ये भूत कुछ ऐसा चला कि निर्माताओं को लगने लगा- नामचीन हीरो को साइन भर कर लो. बड़े सितारों के होने का मतलब फिल्मों के हिट होने की गारंटी है. बॉलीवुड में स्टारडम के दबाव में सिनेमा कारोबार इतना प्रभावित हुआ कि हीरो ही फिल्म तमाम चीजों पर असर डालने लगे. कास्टिंग तक करने लगे. जिन फिल्म में दो या उससे ज्यादा हीरो होते वहां- ताकतवर अभिनेता दूसरे एक्टर्स के रोल छोटे करवाने लगा. यहां तक कि अगर किसी सीक्वेंस में सपोर्टिंग एक्टर का भी परफॉर्मेंस स्टार पर भारी पड़ता दिखता तो उसे भी बदला जाने लगा. दक्षिण और बॉलीवुड में एक फर्क यह भी है कि वहां लेखकों, निर्देशकों और संगीतकारों का भी स्टारडम दिखता है. योग्यता के अनुसार वरीयता और टीम वर्क ही दक्षिण की सफलता की सबसे बड़ी वजह है. गौर करना कभी.
जबकि बॉलीवुड में असंख्य बार देखने में आया है- बड़े सितारों ने कहानियां मन मुताबिक़ बदलवा दी हों. लेखक, सपोर्टिंग कास्ट, म्यूजिशियन की तो कोई अब बात भी नहीं करता. दो तीन नामों को छोड़ दिया जाए तो निर्देशक का नाम भले होता है मगर कई फिल्मों में कैमरे के पीछे भी उसके ‘सुपर सितारों’ की ही चलती है. हिंदी दर्शकों से पूछिए कि क्या वे हिंदी फिल्मों के कितने लेखकों, गीतकारों, संगीतकारों, सिनेमैटोग्राफर, संपादकों आदि का नाम जानते हैं? लोग मुश्किल से एक दो नामों ही बता पाएंगे. अगर हिंदी सिनेमा पसंद करने वाले दर्शकों से पूछा जाए कि बड़े-बड़े हीरो हीरोइन के अलावा वे सपोर्टिंग भूमिकाओं में नजर आने वाले कितने अभिनेताओं का नाम जानते हैं- तो चेहरे उन्हें बहुत याद आएंगे मगर कुछ गिने-चुने नाम ही लेने में सक्षम होंगे. निश्चित ही इनमें से एक सबसे बड़ा नाम संजय मिश्रा का भी होगा.
संजय मिश्रा भाग्यशाली हैं जो उन्होंने बॉलीवुड के दो दौर को देख लिया
संजय मिश्रा जैसे अभिनेता भाग्यशाली हैं कि उन्होंने अपने दौर में दो तरह के बॉलीवुड को देखा. एक जिसके बारे में ऊपर बताया जा चुका है और दूसरा फिल्म इंडस्ट्री की फिल्मों की मेकिंग में आए बदलाव. जिसने स्टार पावर की बजाए कहानियों और दमदार परफॉर्मेंस पर भरोसा किया. पिछले 10-15 सालों में बॉलीवुड में ऐसी तमाम फ़िल्में बनी हैं जिनमें कोई स्टार नहीं था और भारतीय सामान्य शक्ल सूरत वाले एक्टर्स थे. मगर ये कहानियां मनोरंजक हैं और सिनेमाई दृष्टि से महत्वपूर्ण नजर आती हैं. जिन्होंने इन्हें देखा उन्होंने पसंद भी किया. हालांकि इस बिंदु पर निवेश और लागत निकालने की अपनी चुनौतियां हैं. अच्छी फ़िल्में बनने के बावजूद स्टारपावर ना होने की वजह से फिल्मों की वाजिब चर्चा नहीं हो पाती और जाहिर है व्यापक दर्शकों तक भी नहीं पहुंच पाती.
बॉलीवुड के बदलाव वाले दौर ने ही संजय मिश्रा जैसे एक्टर्स का जैकपॉट लगा दिया. उन्होंने कई ऐसी फ़िल्में की हैं जिनमें नायक अधेड़ है. वह एक हमारे समाज में दिखने वाला किसी शहर कस्बे का एक आम सा इंसान है. वह बहुत साधारण और सामान्य मुश्किलों में जूझ रहा है. ‘होली काऊ’ आने से पहले हम संजय मिश्रा की ऐसी ही पांच फिल्मों के बारे में बता रहे हैं जिन्हें दर्शकों को एक बार जरूर देखना चाहिए. अलग-अलग मूड की फिल्मों को देखकर हीरो के संदर्भ में हिंदी दर्शकों की धारणाएं बदल जाएँगी. जिन्होंने फ़िल्में नहीं देखी होंगी उन्हें अफसोस होगा कि इसे मिस क्यों कर दिया और सिनेमाघरों में ये फ़िल्में आई भी थीं या नहीं. संजय मिश्रा की सभी फ़िल्में दर्शकों को ओटीटी के अलग अलग प्लेटफॉर्म पर मिल जाएंगी.
1) सारे जहां से महंगा
संजय मिश्रा की मुख्य भूमिका से सजी यह सटायर ड्रामा साल 2013 में आई थी. संजय मिश्रा ने पशु प्रजनन विभाग में काम करने वाले एक सरकारी कर्मचारी की भूमिका निभाई. वह ऐसे परिवार के मुखिया हैं जहां सबकी जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है. परिवार पहले से ही ठीक से खर्च चलाने में परेशान है. महंगाई ने कमर तोड़ रखी है. सरकारी कर्मचारी और उसका परिवार महंगाई से निपटने के लिए क्या तरकीब लगाता है उसे बहुत मनोरंजक तरीके से दिखाया गया है.
2) आंखों देखी
रहत कपूर के निर्देशन में बनी यह फिल्म साल 2014 में आई थी. इसमें यूं तो कई दिग्गज एक्टर्स हैं मगर बाबू जी के रूप में संजय मिश्रा कहानी का केंद्र बिंदु हैं. कहानी का बैकड्राप दिल्ली है. बाबूजी का संयुक्त परिवार है. बच्चे भाई सब. सभी मिलकर दो कमरों के घर में रहते हैं. एक साधारण संयुक्त परिवार के आपसी झगड़े, एक दूसरे के लिए उनका प्रेम फिल्म और उत्सर्ग देखने लायक है. सिर्फ संजय मिश्रा ही नहीं रजत कपूर और सीमा पाहवा जैसे कलाकारों ने भी अपने किरदारों में जान डाल दी है.
3) इक्कीस तारीख शुभ मुहूर्त
साल 2018 में पवन चौहान के निर्देशन में आई यह फिल्म भी कॉमेडी ड्रामा है. संजय मिश्रा ने इसमें मथुरा के एक पंडित गिरधर लाल शर्मा की भूमिका निभाई है. गिरधर पुरोहिती का काम कर किसी तरीके घर चलाता है. घर में एक बेटा और एक बेटी और वृद्ध पिता हैं. बेटी की शादी के लिए गिरधर के पास पैसे नहीं हैं. गिरधर की निजी परेशानियों के साथ फिल्म में आम परिवार किस तरह शादी को लेकर आर्थिक वजहों से परेशान रहता है- बहुत रोचक तरीके से दिखाया गया है.
4) अंग्रेजी में कहते हैं
हरीश व्यास के निर्देशन में बनी यह फिल्म साल 2018 में आई थी. फिल्म की कहानी का बैकड्राप बनारस है. संजय ने यशवंत बत्रा नाम के अधेड़ शख्स का किरदार निभाया है जो अपनी पत्नी के साथ खुश है. उसकी एक बेटी भी है. यशवंत को लगता है कि शादी है तो पत्नी के साथ प्यार भी है. उसकी जवान बेटी है जो पिता की मर्जी के खिलाफ शादी कर लेती है. इसके बाद यशवंत पत्नी को उलाहने देता है जिसके बाद वह उसे छोड़कर चली जाती है. मगर बाद में यशवंत को एक दोसरे जोड़े को देखकर अपनी गलती का एहसास होता है और उसे लगता है कि जीवनभर उसने पत्नी से वह अपना प्यार जाता नहीं पाया जो जरूरी था. अधेड़ कपल की केमिस्ट्री देखने लायक है.
5) कामयाब
हार्दिक मेहता के निर्देशन में बनी यह फिल्म साल 2020 में आई थी. इसकी कहानी फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं करने वाले एक एक्टर की है. अधेड़ हो चुका एक्टर जिसने 499 फिल्मों में नाना प्रकार की भूमिकाएं कर ली हैं. मगर उसे अपनी 500वीं फिल्म की तलाश है. अपनी जिंदगी में मस्त एक बूढ़ा. एक ऐसा एक्टर जिसने काम तो खूब किया है लोगों ने उसे कई फिल्मों में छोटी छोटी भूमिकाओं में देखा भी हो मगर उसकी पहचान इतनी बड़ी नहीं हो पाई कि लोग उसे जानते हों. असल में इस फिल्म के जरिए सिनेमा में एक दो सेकेंड की भूमिकाओं में नजर आने वाले कलाकारों की मुश्किलों और चुनौतियों और संघर्ष को दिखाया गया है. यह फिल्म अपने आप में यूनिक है.
वैसे संजय मिश्रा ने इस फिल्मों के अलावा भी कई और फिल्मों में बतौर लीड एक्टर दमदार भूमिकाएं की हैं. कभी प्रसंग आया तो उसकी भी चर्चा होगी.