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“शिकारी देवी” हिमाचल का अनोखा मंदिर: जहां न छत टिक सकती है और न ऊपर पक्षी उड़ सकते हैं

admin
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देवभूमि के कई मंदिर आज भी कई रहस्यों से भरे पड़े हैं। इन मंदिरों से जुड़ी देव आस्था की बातें हर किसी को हैरान कर देती हैं। हालांकि, इसके वैज्ञानिक पहलू भी हैं लेकिन देव आस्था इन वैज्ञानिक पहलुओं पर हावी रहती है। ऐसे ही मंदिरों में सराज घाटी की शिकारी देवी मां का मंदिर भी एक है। सर्दियों के मौसम में यहां पर छह से सात फीट तक बर्फ गिरती है लेकिन यह भारी बर्फ भी माता के छत रहित मंदिर की मूर्तियों पर नहीं टिक पाती है और न ही इस मंदिर के ऊपर छत टिक पाती है।

मान्यता है कि यहां पर आने वाले हर श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी होती है। माता का यह स्थान सराज क्षेत्र में ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मां शिकारी मंदिर के पुजारी काहन सिंह ने कहा कि मूर्तियों पर बर्फ नहीं जमती। इसे दैवीय चमत्कार के रूप में देखा जाता है।

शिकारी माता का यह मंदिर मंडी में एकमात्र एक ऐसा मंदिर है, जिसकी छत नहीं है। यहां पर देवी खुले आसमान के नीचे प्रतिष्ठित है। मंदिर में केवल दीवारों पर ही मूर्तियां स्थापित हैं। ऐसी मान्यता है कि देवी छत डालकर मंदिर के भीतर रहना पसंद नहीं करतीं। देव आस्था से जुड़े लोगों का कहना है कि कई बार मंदिर में छत डालने की कोशिश की गई लेकिन माता के अनुसार आज्ञा नहीं दी गई है।

शिकारी देवी की प्रतिमाएं पत्थरों की एक मचान पर स्थापित हैं। शिकारी माता को योगिनी माता भी कहा जाता है। माता की नवदुर्गा मूर्ति, चामुंडा, कमरूनाग और परशुराम की मूर्तियां भी यहां पर स्थापित की गई हैं। नवरात्रों में यहां पर विशेष मेले लगते हैं। मंडी जिले का सर्वोच्च शिखर होने के नाते इसे मंडी का क्राउन भी कहा जाता है।

मान्यता है कि मार्कंडेय ऋषि ने यहां सालों तक तपस्या की थी और उनकी तपस्या से खुश होकर यहां मां दुर्गा शक्ति रूप में स्थापित हुईं। कुछ समय के बाद पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान मंदिर का निर्माण किया। पांडवों ने यहां तपस्या कर मां दुर्गा को प्रसन्न किया और पांडवों को कौरवों के खिलाफ युद्ध में जीत का आशीर्वाद दिया।

इस दौरान यहां मंदिर का निर्माण तो किया गया, मगर पूरा मंदिर नहीं बन पाया। मां की मूर्ति स्थापित करने के बाद पांडव यहां से चले गए। यहां हर साल सर्दियों में बर्फ तो खूब गिरती है, मगर मूर्तियों के ऊपर कभी भी बर्फ नहीं टिकती। कहा जाता है कि मंदिर की छत बनाने का काम कई बार शुरू किया गया, लेकिन हर बार कोशिश नाकाम रही।

हर साल गर्मियों में यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। मंदिर तक पहुंचने का रास्ता बेहद सुंदर है। चारों तरफ हरियाली दिखती है।एक कथा प्रचलित है कि पांडवों को एक औरत ने आगाह किया था कि कौरवों के साथ चौसर न खेलें। लेकिन, होनी को टाला नहीं जा सका और चौसर खेलने के कारण पांडवों को अपना राजपाट छोड़कर निर्वासित होना पड़ा। वनवास के दौरान पांडव इस क्षेत्र में आये। एक दिन अर्जुन एवं अन्य भाइयों ने एक सुंदर मृग देखा तो उसका शिकार करना चाहा। काफी पीछा करने के बाद भी वह मृग उनके हाथ नहीं आया।

पांडव चर्चा करने लगे कि वह मृग कहीं मायावी तो नहीं था। तभी आकाशवाणी हुई कि मैं इस पर्वत पर वास करने वाली शक्ति हूं और मैंने पहले भी तुम्हें चौसर खेलते समय सावधान किया था। इस पर पांडवों ने उनसे क्षमा प्रार्थना की, तो देवी ने उन्हें बताया कि मैं इस पर्वत पर नवदुर्गा के रूप में विराजमान हूं और यदि तुम मेरी प्रतिमा निकालकर उसकी स्थापना करोगे तो अपना राज्य पुन: पा जाओगे। पांडवों ने ऐसा ही किया। उन्होंने नवदुर्गा की प्रतिमा खोजकर उसे स्थापित किया। चूंकि माता मायावी मृग के शिकार के रूप में मिली थी, इसलिए मंदिर का नाम शिकारी देवी प्रचलित हुआ।

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