बिस्कुट से दिया अंग्रेजों को जवाब, देसी कोल्ड ड्रिंक से तोड़ा विदेशी कोका कोला का घमंड कोल्ड ड्रिंक कोका कोला

आज भारत व्यापारिक क्षेत्र में इतना समृद्ध हो चुका है कि सुई से लेकर रॉकेट तक बनाने की क्षमता रखता है. लेकिन यही वो देश था जो आजादी के बाद भी बहुत सी जरूरतों के लिए विदेशी मुल्कों का गुलाम बना हुआ था. ऐसे में कुछ लोग अपनी आधुनिक सोच के साथ आगे आए और उन्होंनेअपनी सोच के दम पर ना केवल भारतीय लोगों के घरों से विदेशी सामान हटायाबल्कि देश को आर्थिक रूप से मजबूती देने की भी पूरी कोशिश की.
पारले ग्रुप एक ऐसी ही सोच का नतीजा थी जिसने आजादी से पहले ही अंग्रेजों को ये जवाब देने की शुरुआत कर दी थी कि “हम हर बात के लिए उन पर या अन्य विदेशी मुल्कों पर आश्रित रहने वालों में से नहीं हैं.”तो चलिए आज हम जानते हैं उस पारले ग्रुप की कहानी जो एक छोटी सी दर्जी की दुकान से शुरू हुई और पहले अंग्रेजों को, फिर विदेशी कंपनियों को करारा जवाब दिया:
ये कहानी शुरू होती है दक्षिणी गुजरात के पास स्थित वलसाड के पारदी नामक गांव से. 1900 दशक के शुरुआत में जब भारत अपनी आजादी पाने के सपने को आगे बढ़ा रहा था तभी इस गांव का एक 12 साल का लड़का रोजगार की तलाश में बंबई चला आया. उसका नाम था मोहनलाल चौहान. बंबई आने के बाद उसका एक ही सपना था और वो था सिलाई सीखना. वो अपने इसी काम को बहुत आगे ले जाना चाहता था. 18 साल की उम्र में उस लड़के ने अपने इस सपने को एक उड़ान देते हुए बंबई के गामदेवी में एक दुकान की शुरुआत की.
बेटों ने दिखाया मोहनलाल को कामयाबी का रास्ता
उसका सिल्क का काम चलने लगा और देखते ही देखते उसने D Mohanlal & Co and Chhiba Durlabh. नाम से दो और दुकानें खोल लीं. मोहनलाल चौहान के पांच बेटे थे. मानेक लाल, पीतांबर, निरोत्तम, कांतिलाल और जयंतीलाल. मोहन लाल अपने बच्चों को व्यापार का हर वो गुण सिखाना चाहते थे जो उन्हें कहीं भी किसी भी स्कूल में सीखने को नहीं मिलता. यही वजह थी कि उन्होंने अपने बच्चों को अपने व्यापार में उतार दिया. उनके पांचों बच्चे उनके व्यापार के अलग अलग हिस्से को संभालने लगे.
ये मोहनलाल के बेटे ही थे जिन्होंने अपने पिता को ये सलाह दी कि अब उन्हें अपना बिजनेस बदलने की जरूरत है. बहुत विचार करने के बाद मोहनलाल ने ये निश्चय कि वह कॉन्फेक्शनरी के बिजनेस में हाथ आजमाएंगे. आज भले ही पारले को आम लोग पारले जी बिस्कुट की वजह से जानते हों लेकिन मोहनलाल ने सबसे पहले बिस्कुट बनाने के बारे में नहीं बल्कि चॉकलेट और टॉफी बनाने के बारे में सोचा था.
काम सीखने के लिए गए जर्मनी
समस्या ये थी कि उस समय तक भारत में कोई भी कंपनी टॉफ़ी नहीं बना रही थी, इसीलिए इसे बनाने का तरीका भी आम नहीं था. लेकिन मोहनलाल ने जो ठान लिया था उसे उन्हें किसी भी हाल में पूरा करना था. यही वजह थी कि वह टॉफी चॉकलेट बनाने का तरीका सीखने 1929 में जर्मनी चले गए. उन्होंने वहां टॉफ़ी मेकिंग की तकनीक सीखी और लौटते समय इससे संबंधित कुछ मशीन भी लेते आये.
ऐसे मिला पारले को उसका नाम
इसके बाद चौहान परिवार ने महाराष्ट्र के विले पारले में अपनी फैक्ट्री लगाई और उसे नाम दिया ‘हाउस ऑप पारले’. विले पारले से ही कंपनी का नाम पारले पड़ा और इस तरह जन्म हुआ पारले कंपनी का. प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जब मोहनलाल ने देखा कि उनके बेटों ने उनके बिजनेस को अच्छे से संभाल लिया है तो उन्होंने 1936 में काम से रिटायर होने का मन बना लिया.
पारले ने दिया देश को अपना बिस्कुट
पारले में नई पीढ़ी का दखल पड़ते ही कंपनी को लेकर नई सोच की भरमार लग गई. मोहनलाल के सबही बेटों ने काम के अलग अलग हिस्सों में अपना दिमाग लगाना शुरू कर दिया. जिसका सकारात्मक परिणाम देखने को मिला. पारले ने सबसे पहले भारत के आम लोगों को ऑरेंज कैंडी का स्वाद चखाया. आज भले ही बिस्कुट एक आम चीज हो लेकिन एक समय ऐसा भी था जब ये अमीरों के टेबल पर ही चाय के साथ खाने को मिलती थी. ऐसे में चौहान भाइयों ने एक ऐसा बिस्कुट लाने के बारे में सोचा जिसका स्वाद भारत में हर वर्ग के व्यक्ति को मिले. इसी सोच के साथ पारले ने 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपना पहला बिस्कुट ‘पारले-ग्लूको’ लॉन्च करने की घोषणा कर दी.
Parle-G
पारले का ये बिस्कुट एक तरह से अंग्रेजों को दिया गया जवाब था. भारत में उस समय ब्रिटानिया, यूनाइटेड जैसी बिस्कुट विदेशी कंपनियां प्रमुख रूप से बिस्किट बना रही थी. इनके बिस्कुट इतने महंगे थे कि अमीरों के अलावा यहां तक किसी और वर्ग की पहुंच ही नहीं थी लेकिन पारले बिस्कुट के बाद देश में बिस्कुट अमीरों के लिए न हो कर, आम भारतीयों के लिए हो गया.
आजादी के बाद चमकी किस्मत
कहते हैं जो होता है अच्छे के लिए होता है. आजादी से पहले पारले ने अपने बिस्कुट को लेकर कई गलतियां कीं लेकिन देश की आजादी पारले के लिए ऐसा मौका थी जहां वह अपनी गलतियों से सीख सकती थी. इसके साथ ही देश की आजादी पारले कंपनी के लिए बेहतर होने और आगे बढ़ने का मौका लेकर आई. पारले ने देश की आजादी के बाद अपने भारतीय ग्राहकों के लिए बिस्कुट की संख्या ही नहीं बधाई बल्कि उन्होंने “Freedom from British Campaign” नाम से विज्ञापन भी निकाला. इसी का असर था कि कुछ ही समय में पारले का बिस्कुट पूरे भारत का ऐसा बिस्कुट बन गया जो यहां के हर घर में अपनी पहुंच रखता था.
बाकी बिस्किट के मुक़ाबले इसका दाम भी कम था. 1947 में जब देश अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ाद हुआ, उस साल देश में गेहूं की भारी कमी पड़ी. इसी वजह से कंपनी ने जौ के बिस्किट बनाये और इसके लिए बाकायदा अख़बार में विज्ञापन भी दिया.